रविवार, दिसंबर 07, 2008

प्रकाश बादल की दो ग़ज़लें

शिमला में युवा पत्रकार एवं चर्चित गजलकार श्री प्रकाश बादल की चंद गजलों से रू-ब-रू होने का सुअवसर मिला। ब्लाग की दुनिया में इनकी सक्रियता प्रेरित करती हैं। पेश है श्री बादल की दो गजलें-


1.
शिवालों मस्जिदों को छोड़ता क्यों नहीं।

खुदा है तो रगों में दौड़ता क्यों नहीं।

लहूलुहान हुए हैं लोग तेरी खातिर,

खामोशी के आलम को तोड़ता क्यों नहीं।

कहदे कि नहीं है तू गहनों से सजा पत्थर,

आदमी की ज़हन को झंझोड़ता क्यों नहीं,

पेटुओं के बीच कोई भूखा क्यों

अन्याय की कलाई मरोड़ता क्यों नहीं।

झुग्गियां ही क्यों महल क्यों नहीं,

बाढ़ के रुख को मोड़ता क्यों नहीं।

2.

जब हों जेबें खाली साहब।

फिर क्या ईद दीवाली साहब।

तिनका - तिनका जिसने जोड़ा,

वो चिडिया डाली-डाली साहब।

सब करतब मजबूरी निकलेँगे,

जो बंदर से आंख मिला ली साहब।

सबकी है कंक्रीटी भाषा,

अपनी तो हरियाली साहब।

मौसम ने सब रंग धो दिये,

सारी भेडें काली साहब।

आधार की बातें, झांसे उसके,

दो बैंगन को थाली साहब।

जब अच्छे से जांचा - परखा,

रिश्ते निकले जाली साहब।

मंगलवार, अक्तूबर 14, 2008

अमर सिंह! अभी और कितने टर्न लेंगे?

खबर : दिल्ली के बटला हाउस में हुए एनकाउन्टर की न्यायिक जांच कराने की मांग कर विवादों में घिरे समाजवादी पार्टी महासचिव अमर सिंह ने सोमवार को यू टर्न लेते हुए कहा कि उन्होंने बटला हाउस मुठभे़ड को कभी फर्जी नहीं कहा। उन्होंने कहा, 'मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बटला हाउस में हुई मुठभे़ड और पुलिस अधिकारी की शहादत फर्जी थी।`
गुस्ताखी माफ : तो फिर इतने दिनों से मुठभे़ड की न्यायिक जांच की मांग केवल मुसलिम वोट बैंक को भरमाने के लिए कर रहे थे? अल्पसंख्यक वोट बैंक के लिए यूं कब तक घड़ियाली आंसू बहाते रहेंगे? बटला हाउस में एनकाउन्टर में अभी कितने और टर्न लेंगे?

खबर : राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक के एजेंडे में आतंकवाद को शामिल नहीं किए जाने को लेकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना के बारे में पूछे जाने पर अमर सिंह ने कहा कि उग्रवाद का मुद्दा एजेंडे में शामिल था। मैं इस प्रकार की बातों से परेशान नहीं होता। मैं तथ्यों और अल्पसंख्यकों के मन में जो आशंकाएं हैं, उससे परेशान हूं उनकी आशंकाआें को दूर किए जाने की जरूरत है।
गुस्ताखी माफ : आशंकाएं तो बहुसंख्यकों के मन में भी हैं। फिर एकपक्षीय राजनीति क्यों? नरेंद्र मोदी आतंकवाद के मुद्दे पर राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में बहस की मांग कर क्या गलती कर रहे हैं। क्या राष्ट्रीय एकता को आतंकवाद से खतरा नहीं है? या फिर आतंकवाद पर चर्चा होने से आपका मुसलिम वोट बैंक नाराज हो सकता है?

खबर : कुछ दिन पहले अमर सिंह ने प्रधानमंत्री से मुलाकात कर जामिया नगर के बटला हाउस में हुई मुठभे़ड की न्यायिक जांच कराने की मांग की। हालांकि, प्रधानमंत्री की ओर से उन्हें किसी तरह का आश्वासन नहीं मिला। ... अमर सिंह ने यह भी स्पष्ट किया कि उन्होंने प्रधानमंत्री के साथ बैठक के दौरान गृहमंत्री शिवराज पाटिल के इस्तीफे की मांग नहीं उठाई है।
गुस्ताखी माफ : एनकाउंटर के बाद गिरफ्तार छात्रों को कानूनी मदद देने का ऐलान करते समय तो आपने कहा था कि बटला हाउस एनकाउंटर के लिए गृह मंत्री शिवराज पाटिल को नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे देना चाहिए फिर प्रधानमंत्री से मुलाकात में यह मुद्दा यों नहीं उठाया? क्या आपके खाने के दांत और दिखाने के दांत अलग-अलग हैं?

रविवार, अक्तूबर 12, 2008

क्या ऐसे अधिकारी को पद पर बने रहना चाहिए?

इस देश में जब भी अपराध की कोई बड़ी घटना होती है तो हम तुरंत गृहमंत्री से नैतिक आधार पर इस्तीफे की मांगकर बैठते हैं। ऐसे में जब किसी जिम्मेदार पद पर बैठे बड़े अधिकारी का बेटा ही क्राइम का मास्टरमाइंड निकले तो क्या उससे नैतिक आधार पर इस्तीफा नहीं मांगा जाना चाहिए?
पंजाब के फिल्लौर में पिछले गुरुवार की रात मुंबई के एक व्यापारी से पौने दो करोड़ के हीरे लूट लिए गए थे। लूटकी इतनी बड़ी घटना के बाद पंजाब के पुलिस अधिकारियों में खलबली मच गई थी। पुलिस ने आरोपियों का पता लगाने के लिए कई टीमें बनाई और दो दिनों में ही पूरे मामले का खुलासा कर लूटे गए हीरे बरामद कर लिए। खबरों के मुताबिक लुटेरा निकला विजिलेंस ब्यूरो पटियाला के एसएसपी शिवकुमार का बेटा मोहित शर्मा, जो लुधियाना में हीरों का व्यापारी है। साजिश रचने में उसका सहयोगी निकला खुद एसएसपी का सरकारी गनमैन हरबंस। शक की सूई एसएसपी के एक और गनमैन की ओर इशारा कर रही है, जो अभी पुलिस पकड़ से दूर है। मुंबई के व्यापारी ने गुरुवार दिन में मोहित को हीरे दिखाए थे और रात में लूट की यह वारदात हुई। पुलिस ने मोहित और हरबंस को गिरफ्तार कर लिया है। पुलिस की कामयाबी में मोबाइल काल डिटेल्स की अहम भूमिका रही।
मैं इस राय के बिल्कुल खिलाफ हूं कि बेटे की करतूतों की सजा बाप को दी जाए। लेकिन नैतिक जिम्मेदारी भी कुछ चीज होती है भाई।
विजिलेंस के एसएसपी पर आंतरिक सुरक्षा की बड़ी जिम्मेदारी होती है। उसके पास ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियां भी होती हैं, जिसके गलत हाथों में पड़ जाने से देश की आंतरिक सुरक्षा को बड़ा खतरा हो सकता है। ऐसे में जब एसएसपी का बेटा क्राइम का मास्टरमाइंड निकले, तो बड़े साहब जिम्मेदारी से कैसे मुक् हो सकते हैं? सवाल यह हैकि यदि एसएसपी साहब को पता था कि उसका बेटा कानून को ठेंगा दिखा रहा है तो बाप की चुप्पी या अपराध नहीं है? और यदि उसे अपने बेटे के बारे में ही पता नहीं था कि उसका बेटा गलत रास्ते पर चल रहा है, तो फिर या उसे विजिलेंस के एसएसपी जैसे अहम पद रहने दिया जाना चाहिए? देश के नीति निर्धारकों को इस सवाल पर सोचना होगा। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि एसएसपी शिवकुमार पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ चल रही विजिलेंस जांच और पंजाब के पूर्व डीजीपी एसएस विर्क के खिलाफ हो रही जांच में भी शामिल हैं।

शनिवार, अक्तूबर 04, 2008

आरक्षण के असली हकदारों से हक छीना

चुनावी तैयारी में जुटी मनमोहन सरकार हताशा में कुछ ऐसे उलटे-सीधे फैसले कर रही है जिसके लिए आने वाली पीढ़ियां उन्हें शायद ही माफ करे। केंद्रीय कैबिनेट ने शुक्रवार को 'अन्य पिछड़ा वर्ग` (ओबीसी) के ज्यादा से ज्यादा लोगों को सरकारी नौकरियों और शैक्षिणिक संस्थाओं में आरक्षण का लाभ देने के नाम पर क्रीमी लेयर की आय सीमा को सालाना 2.5 लाख रुपये से बढ़ाकर 4.5 लाख रुपये कर दिया है। ऐसा कर न केवल क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभ से बाहर रखने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की काट निकाली गई है, बल्कि आरक्षण के असली हकदार पिछड़ों को इससे दूर करने की साजिश भी रची गई है।
ओबीसी क्रीमी लेयर के लिए सबसे पहले 1991 में एक लाख रुपये सालाना आय की सीमा तय की गई थी, जिसे 2004 में बढाकर
2.5 लाख रुपये किया गया था। अब इसे 4.5 लाख रुपये सालाना करने का मतलब यह है कि 37 हजार 5 सौ रुपये तक मासिक वेतन पाने वाले हाई प्रोफाइल बाप के कान्वेंट एजूकेटेड शहजादे भी आरक्षण के हकदार होंगे। फिर मजदूरी करने वाली मां के बेटों और झोपड़ियों में सपने बुनने वाले होनहारों के लिए तर की की राह पर दो कदम चलना भी मुश्किल हो जाएगा।
उच्च शिक्षण संस्थानों में खाली रह गई ओबीसी सीटों को अनारक्षित कोटे से भरने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद हड़बड़ी में लिया गया सरकार का यह फैसला खेदजनक है। सही रास्ता तो यह था कि समाज के पिछड़े लोगों को इस काबिल बनाया जाता कि ये सीटें खाली ही न रहतीं। लेकिन मनमोहन सिंह जैसे ग्लोबल अर्थशास्त्री से असली पिछड़ों के कल्याण की उम्मीद करना बेमानी ही लगती है। अब ज्यादातर बड़े अधिकारी और नेताओं के सौभाग्यशाली लाडले आरक्षण के मजे ले सकेंगे। आखिर पिछड़ा वर्ग के वोट बैंक पर दबदबा भी तो
2.5 लाख से ज्यादा आमदनी वाले 'पिछड़ों` का ही है।
गणित का सीधा सा सिद्धांत है, बड़ा तभी तक बड़ा है जबतक छोटा उससे छोटा बना रहे। यदि पिछड़े ही नहीं रहेंगे, तो पिछड़ों के नाम पर राजनीति की दुकान कैसे चलेगी। वोट बैंक का इतना बड़ा खजाना ऐसे थोड़े ही मिटने दिया जाएगा? और फिर असली पिछड़ों को छलने के लिए कांग्रेस के युवराज तो खेतों में मिट्टी ढो ही रहे हैं। युवराज की कलाबती की झोपड़ी में टूटी चारपाई की जगह यदि पलंग आ जाए तो वह फोटो कहां जाकर खिंचवाएंगे? उम्मीद की जानी चाहिए कि एक दिन आरक्षण के असली हकदार भी जागेंगे और तब न तो ये आरक्षण के ठेकेदार बचेंगे और न ही उनकी दुकानें।

गुरुवार, अक्तूबर 02, 2008

एक ख़त परमआदरणीय बापू के नाम

हे परमआदरणीय बापू!
प्रणाम।
कहां और कैसे हैं आप? आज हमने आपका हैप्पी बर्थडे मनाया। आपने कर्म को पूजा माना था, इसलिए आपके हैप्पी बर्थडे पर देशभर में कामकाज बंद रखा गया। मुलाजिम खुश हैं क्योंकि उन्हें दफ्तर नहीं जाना पड़ा, बच्चे खुश हैं
क्योंकि स्कूल बंद थे। इस देश को छुट्टियाँ आज सबसे ज्यादा खुशी देती हैं। छुट्टी थी, इसलिए मैं भी आपका हालचाल लेने राजघाट तक चला गया। वहां मिले ज्यादातर लोग आपकी समाधि के पास फोटो खिंचवाने में जुटे थे।
आज देशभर में आपके नाम पर समारोह आयोजित कर झूठी कसमें खाई गईं। आपने कहा था सत्य ही ईश्वर है, इसलिए आज देश में हर कोई सत्य बोलने से डर रहा है। देशभर में सच्चे का मुंह काला है, झूठे का बोलबाला है। झूठ बोलने वालों की दुकानें अच्छी चल रही हैं। जो जितनी सफाई से झूठ बोल रहा है, वह उतना ही ज्यादा सफल है। चाहे वह नेता हो, पदाधिकारी हो या कोई और।
आज कोई भी आपको अपने दिल में नहीं रखना चाहता, सबकी जेबों में आप जरूर मौजूद हैं। असली नोटों की पहचान आपकी फोटो देखकर भी होती है। ऐसी व्यवस्था इसलिए की गई है, ताकि घूस लेते वक्त आपकी फोटो को देख लेने से पाप धुल जाए। जिस दफ्तर में जितना अधिक भ्रष्टाचार है, वहां आपकी उतनी ही बड़ी फोटो लगी है। आपकी बड़ी फोटो के नीचे बैठकर नेता और अफसर छोटी फोटो वाले नोट धरल्ले से वसूल रहे हैं। कुल मिलाकर नेताओं ने गांधीवाद से अपना नाता पूरी तरह तोड़ लिया है। हां! कुछ भाई लोग भाईगीरी छोड़कर गांधीगीरी कर रहे हैं।
आप जहां भी जाते थे, कारवां वहीं पहुंच जाता था। आज के नेता राजधानी में बैठकर 'राजधानी चलो` का नारा देते हैं और भीड़ को भाड़े की गाड़ियों में ढोकर वहां पहुंचाया जाता है। गांवों में पैदल मार्च करने वाले नेता आज गांवों की ही धूल फांकते रह जाते हैं, हेलीकॉप्टर से दौरा करने वाले नेताओं की तूती बोलती है।
आपने विदेश में हुनर सीखकर हिंदुस्तान को अपनी कर्मभूमि बनाया। आज के युवा हिंदुस्तान में हुनर सीखकर विदेश जाने के सपने संजोते हैं। या करें, अपने देश में नौकरियों की भारी कमी है बापू! आपने देशवासियों को मुफ्त में समुद्र से नमक बनाना सिखाया था, लेकिन आज देश मल्टीनेशनल कंपनियों का बनाया नमक दस से पंद्रह रुपये किलो खरीद कर खा रहा है। मुझे खुशी है कि मैं आपका बनाया नमक नहीं खा रहा हूं, वरना नमक का कर्ज चुकाना भारी पड़ जाता। फिर भी आपको यह खत लिखकर सावधान कर दे रहा हूं, यदि आपका मन दोबारा इस धरती पर जनम लेने का हो रहा हो तो आप सौ बार सोच लें।

बुधवार, अक्तूबर 01, 2008

वरना पूरे देश में फैल जाएगा आतंकवाद

नवरात्र की पूर्व संध्या पर सोमवार को गुजरात के मोडासा (साबरकांठा) और महाराष्ट्र के मालेगांव में हुए विस्फोटों में सात लोगों की मौत हो गई और सौ से अधिक लोग घायल हो गए। स्पष्ट है दिल्ली के चंद दिनों बाद ही आतंकियों ने गुजरात और महाराष्ट्र को निशाना बनाया है। दोनों स्थानों पर धमाकों में मोटरसाइकिल का इस्तेमाल किया गया। इसी दिन उड़ीसा के हिंसा प्रभावित कंधमाल के कई कस्बों में भी कम क्षमता वाले कई धमाके हुए, हालांकि इनमें कोई हताहत नहीं हुआ। उधर, अहमदाबाद के कालूपुर में 17 देसी बम बरामद किए गए।
संकेत साफ हैं, हिंदुस्तान में आतंकवाद बड़े शहरों या किसी खास रीजन तक सीमित नहीं रहा। कुछ समय पहले तक यहां आतंकवाद रीजनल था। कभी कश्मीर में था तो कभी पंजाब में। कभी नार्थ ईस्ट में था तो कभी कहीं और। लेकिन अब यह कस्बों तक पांव पसार रहा है। रोज नए खुलासे हो रहे हैं, जिनमें आतंक के तार नए-नए शहरों से जुड़ते नजर आ रहे हैं। अगर हालात यही रहे तो यह जल्दी ही पूरे देश में फैल जाएगा।
केंद्रीय गृह मंत्रालय की ही मानें तो जयपुर विस्फोट के बाद 140 दिनों में 44 विस्फोट हुए हैं, जिनमें 152 लोग मारे गए और करीब 450 घायल हुए हैं। दुखद यह है कि आतंकी गतिविधियों की सर्वाधिक मार झेलने के बावजूद हम आतंकवाद को मात देने की कोई कारगर रणनीति नहीं बना सके हैं। आतंकवाद से लड़ने के लिए देश में राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर कोई सर्वसम्मति नहीं बना सके हैं। आम आदमी की बात तो दूर, राष्ट्रीय स्तर के प्रमुख राजनेता तक इस बात पर एकमत नहीं हैं कि आतंकवाद के मामले में देश को कितनी सख्ती बरतनी चाहिए। देश को पोटा चाहिए या नहीं, इसे लेकर विभिन्न नेताओं के रोज विरोधाभासी बयान आ रहे हैं।
आतंकवाद से लड़ने को लेकर दुनियाभर में भारत की छवि एक नरम राष्ट्र की है। बड़े आतंकवादी और माफिया सरगना भी पकड़े जाने के बाद सालों तक हमारी जेलों में मेहमान बनकर मुफ्त की रोटियां चट करते रहते हैं। इस दौरान उन्हें छुड़ाने के लिए उनके गुर्गे तरह-तरह के तिकड़म आजमाते हैं। दूसरी ओर माफिया सरगना जेल से ही राजनीति में किस्मत आजमाने के सपने पालने लगते हैं। देश में लंबे समय से एक ऐसी न्यायिक व्यवस्था की मांग उठती रही है, जिसमें बड़े अपराधियों की सजा का फैसला जल्द-से-जल्द हो सके। विस्फोटकों में इस्तेमाल होने वाली सामग्रियों को रखने, बेचने, एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने और इस्तेमाल करने संबंधी कानून में भी तत्काल संशोधन की जरूरत है।
आतंकियों का न कोई मजहब होता है, न ही देश। वे सिर्फ और सिर्फ मानवता के दुश्मन होते हैं। इसलिए समय की मांग है कि सभी दल वोट बैंक की राजनीति छोड़कर और सभी संस्थाएं निजी हित को परे रखकर आतंकवाद को कुचलने के लिए तुरंत एक राय कायम कायम करें।
संबंधित पोस्ट :-
आतंक से सबक १ : बोया पे़ड बबूल का आम कहां से पाओगे
आतंक से सबक २ : आतंक को इंडियन बनने से रोकना होगा
गुस्ताखी माफ : वीसी साहब! आपके इरादे नेक नहीं लगते।

शनिवार, सितंबर 27, 2008

वीसी साहब! आपके इरादे नेक नहीं लगते

कुछ लोग काम करने की जगह ढिंढोरा ज्यादा पीटते हैं। ऐसा ही कुछ जामिया मिलिया इसलामिया विश्वविद्यालय के कुलपति मुशीरुल हसन कर रहे हैं। आपने पहले बकायदा संवाददाता सम्मेलन बुलाकर धमाकेदार ऐलान किया कि आतंकी बताए जा रहे अपने दो छात्रों को आप कानूनी मदद मुहैया कराएंगे। फिर लॉबिंग में जुट गए और शुक्रवार को केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह के यहां मत्था टेक आए। नतीजा यह हुआ कि जहां कांग्रेस नेता और रामविलास पासवान सहित कई केंद्रीय मंत्री आपके समर्थन में ताल ठोंक रहे हैं, वहीं भाजपाई विरोध में मुखर हैं।
अजी जनाब! आपको अपने बच्चों की मदद करनी थी, करते। किसने रोका है। मदद तो करनी ही चाहिए एक गुरु को अपने शिष्यों की। पहले उन्हें बेगुनाह साबित करते, फिर उस साजिश को भी बेनकाब करते जो आपकी नजर में रची गई थी। लेकिन आपने कुछ करने से पहले चीख-चिल्ला कर एक बात साबित कर दी है कि आपके इरादे काम मुकम्मल होने से ज्यादा पब्लिसिटी पाने की है। जहां तक मैं जानता हूं, इसलाम में जब जकात दी जाती है तो किसी को पता नहीं चलता। यही शर्त मददगार के लिए भी लागू होती है। लेकिन मदद देने से पहले उसे इस तरह से प्रचारित करने के पीछे छिपी आपकी मंशा खतरनाक लगती है।
हिंदुस्तान में आज भी लोग जब अपनी औलाद खराब निकल जाती है तो अखबारों में इश्तिहार छपवा देते हैं कि हमारा इससे कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन उसी हिंदुस्तान का कानून फांसी की सजा पाए गुनहगार से भी उसकी आखिरी इच्छा पूछता है। हमारा कानून सबको कानूनी मदद भी देता है। आप भी दे रहे हैं। यह कतई गुनाह नहीं है। लेकिन इसके पीछे जो राजनीति हो रही है, वह गुनाह है।
मेरा आपसे एक सवाल है, जबसे होश संभाला कभी मुरादाबाद में दंगे देखे तो कभी इलाहाबाद में, कभी मेरठ को जलते देखा तो कभी गुजरात को, या आपलोगों ने शिद्दत के साथ कोई लड़ाई लड़ी? नहीं न। अगर लड़ी होती तो आज पुलिस फोर्स में पढ़े-लिखे मुसलमान युवकों की संख्या काफी होती। जनाब! आप उस यूपीए की गोद में बैठ रहे हैं, जिसके नेताओं ने पिछले करीब पांच सालों में मुसलिम वोट बैंक के लिए मौके मिलते ही घड़ियाली आंसू बहाने के अलावा कुछ खास नहीं किया। आप लोग सच्ची बात करने में क्यों हैं? क्या आपने वह कानून पढ़ा है, जिसे पोटा की जगह कांग्रेस ने बनाया है? सिर्फ नाम हटाया है, प्रावधान वही हैं।
आतंकवाद का न कोई धर्म होता है, न ही ईमान। गुरुओं ईमान जरूर होता है। सबसे पहले
गुरुओं को अपने अंदर झांक कर देखना पड़ेगा कि उनकी शिक्षा में कहां कमी रह गई जो हालात इतने खराब हो रहे हैं और युवा भटक रहे हैं।
मेरी दुआ है कि आप अपने मकसद में कामयाब हों और अपने बच्चों को बेगुनाह साबित कर सकें। लेकिन अगर वे वाकई में आतंकवादियों की नापाक साजिशों का शिकार होकर गलत रास्ते पर चल निकले हैं, तो उन्हें रास्ते पर लाने के लिए आपने कुछ सोचा है? अगर आपके छात्रों पर आतंकियों का साथ देने का आरोप सच साबित हो गया तब आप या करेंगे? यह भी आपको अभी ही सोचना पड़ेगा। आपके साथ उन तमाम लोगों को सोचना पड़ेगा, जिन्होंने इस मामले को राजनीतिक बना दिया है।

शुक्रवार, सितंबर 26, 2008

ब्लागर की भावना का फर्जी एनकाउंटर

हिंदी ब्लाग की बढ़ती लोकप्रियता के बीच यह सवाल बहस का विषय बनता जा रहा है कि अनाम टिप्पणीकारों को कितनी आजादी दी जाए? सुलझे ब्लागर अपनी पोस्ट पर पक्ष-विपक्ष में की गई तमाम टिप्पणियों का तहेदिल से स्वागत करने को हमेशा उत्सुक रहते हैं। लेकिन पहचान छिपाकर की गई अनाम टिप्पणियां अकसर ब्लागरों की भावनाओं का फर्जी एनकाउंटर करती दिख रही हैं। सुप्रतिम बनर्जी की ताजा पोस्ट 'बटला हाउस : क्या सच, क्या झूठ` और इस पर अनाम 'शूटर` द्वारा दागी गई टिप्पणियों से इसे समझा जा सकता है।
सुप्रतिम ने दिल्ली स्थित बटाला हाउस में हुए एनकाउंटर को अपनी ओर से सही या गलत न ठहराते हुए दोनों पक्षों की भावनाओं को पर्याप्त सम्मान दिया गया है। उन्होंने एनकाउंटर को लेकर आम भारतीय के मन में उठ रहे तमाम सवालों को साहस के साथ बड़ी ही संजीदगी से रखा है। साथ ही अपनी ओर से दो अत्यंत सामयिक मुद्दे उठाए हैं-
'एनकाउंटर फर्जी था या नहीं, ये तो अलहदा मसला है, लेकिन अगर मुस्लिमों की एक बड़ी आबादी में आजादी के इतने सालों बाद भी पूरी व्यवस्था के खिलाफ ऐसा घोर अविश्वास है, तो ये जरूर विचारणीय है।`
'एनकाउंटर को लेकर उठे सवाल और जारी बहस से एक बात तो साफ हो गई है कि अब लोग पहले की तरह सिर्फ पुलिस की बताई कहानी पर ही आसानी से ऐतबार करने को तैयार नहीं हैं... और ये व त की जरूरत है कि पुलिस भी अपने कामकाज में पारदर्शिता लाए। ताकि एनकाउंटरों पर सवाल तो उठे, लेकिन अगर पुलिस सही है तो उसके पास इन सवालों का सही जवाब जरूर हो।`
ऊपर के दोनों सवालों के पीछे छिपी ब्लागर की वास्तविक भावना को उनकी पूरी पोस्ट पढ़े बिना नहीं समझा जा सकता। लेकिन पोस्ट पढ़े बिना ही धड़ाधड़ टिपियाणे वाले एक पाठक को इनमें से किसी सवाल से ऐसी मिर्ची लगी कि उन्होंने लिख डाला- 'धिक्कार है आप और आप जैसे बेबकूफ लोगों पर।` उनकी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए अनाम 'शूटर` ने ठोका - ' क्या करना चाहिए पुलिस को? पहले मीडिया को फोन करे कि देखो आतंवादी वहां छिपे है हम जा रहे हैं आप भी कैमरा ले लो?` हालांकि इससे आगे बहुत कुछ लिखकर इस 'शूटर` ने अपनी गंभीरता का परिचय भी दिया है लेकिन अपनी पहचान छिपाकर वार करने को क्या कहेंगे?
इस टिप्पणी पर हरि जोशी ने बहुत सही फरमाया है- 'है ईश्वर, इन नासमझ टिप्पणीकर्ताओं को क्षमा करना। ये नहीं जानते कि इनमें और बटला हाउस पर खड़े होकर बकबास करने वालों में कोई फर्क नहीं हैं। इन सभी के पास एक जैसा ही चश्मा है, सिर्फ ब्रांड बदल गया है।` लेकिन अनाम शूटर ने उनपर जवाबी फायरिंग भी कर दी- '...तुम सेन्सेशनल सीकर तो जरूरत से ज्यादा अक्ल वाले हो, एम्बेड जर्नलिस्ट हो, तुम्हारी जगह कहां होगी?`
ऐसी टिप्पणियां गंभीर मुद्दों पर सार्थक बहस को बकबास में डुबो देती हैं। ऐसे अनाम टिप्पणीकारों को क्या कहेंगे आप?

बुधवार, सितंबर 24, 2008

आशा है 'शाम` होने से पहले क्रांति आएगी

कुछ अखबारों में आज अंदर के पन्ने पर छोटी सी खबर छपी है कि भारत में पिछले दो सालों में भ्रष्टाचार बढ़ा है। खबर में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के भारत में चेयरमैन आरएच तहलियानी के हवाले से बताया गया है कि विश्व के भ्रष्ट देशों की सूची में भारत १३ पायदान फिसल कर ७२वें से ८५वें पायदान पर पहुंच गया है। मतलब यह कि दुनिया में ८४ देश ऐसे हैं, जहां भारत से कम भ्रष्टाचार है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल से जु़डी १३ अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने १८० देशों में सर्वेक्षण के बाद यह करप्शन परसेप्शन इंडेक्स तैयार किया है। सर्वे के मुताबिक भारत में चुनावी और राजनीतिक व्यवस्था सबसे ज्यादा भ्रष्ट है। यहां चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल बहुत पैसा खर्च करते हैं और यह पैसा गलत तरीकों से आता है।
मुझे लगता है कि भ्रष्टाचार बढ़ने से भी ज्यादा िचंताजनक पहलू यह है कि हम भ्रष्ट व्यवस्था के आदी हो गए हैं। हालत यह है कि देश में भ्रष्टाचार बढ़ना अब पहले पन्ने की खबर नहीं बनती है। दुनिया के सबसे कम भ्रष्ट देशों क्रमश: डेनमार्क, न्यूजीलैंड, स्वीडन और िसंगापुर से सबक सीखने की बजाय हम इस बात से संतोष करते हैं कि पाकिस्तान इस सूची में १३४वें नंबर पर है। म्यांमार, हैती, इराक और सोमालिया दुनिया के सबसे ज्यादा भ्रष्ट देशों में गिने जाते हैं।
समय की मांग है िक भारत को दुनिया की आर्थिक महाशि त बनाने का दावा करने वाले राजनेता पहले अपना आचरण सुधारें। देश में भ्रष्टाचार कम किए बिना आर्थिक विकास का सपना हकीकत में तब्दील नहीं हो सकता। दुनियाभर के निवेशकों और पर्यटकों का भरोसा जीतने के लिए हमें देश में भ्रष्टाचार कम करने के उपायों पर गंभीरता से सोचना ही होगा। आजादी के बाद से देश में विकास की जितनी योजनाएं बनीं, यदि वे भ्रष्टाचार की भेंट नहीं चढ़ी होती तो आज भारत सचमुच 'सोने की चिड़िया` होता। आज देश को भ्रष्टाचार से आजादी दिलाने के लिए एक क्रांति की जरूरत है। देश इसके लिए युवा राजनेताआें की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहा है। कहा जाता है कि सुबह का भूला यदि शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते। आशा है 'शाम` होने से पहले यह क्रांति आएगी।
िचत्र गुगल से साभार

मंगलवार, सितंबर 23, 2008

आतंक को इंडियन बनने से रोकना होगा

जब पड़ोसी के घर क्राइम होता है तो हम पुलिस और कानून-व्यवस्था की खामियों को कोसते हैं। उसी पड़ोसी के घर जब आग लगती है तो हम पानी डाल कर आग बुझाने में जुट जाते हैं, योंकि हमें डर होता है कि पड़ोसी के घर की आग कहीं हमारे घर को भी न जला दे। लेकिन आज हालत यह है कि पड़ोसी की लगाई हुई आतंक रूपी आग हमारे और पड़ोसी दोनों के घरों को जला रही है। ऐसे में खतरा पूरे 'मोहल्ले` के जल जाने का पैदा हो गया है। इसलिए सचेत उन्हें तो होना ही पड़ेगा जिनके घर में आग लगी है, उन्हें भी चौकस होना होगा जो अभी तक सुरक्षित है। आतंकवाद का खतरा अब पूरी दुनिया के लिए एकसमान चिंता का विषय है।
साल भर पहले तक हिंदुस्तान में कहीं आतंकी घटना होती थी तो हमारे नेता इतना बयान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते थे कि इसमें पड़ोसी देश का हाथ है। लेकिन आज आतंक के साथ इंडियन नाम भी जु़डता दिख रहा है। मामला सिर्फ नाम तक ही सीमित नहीं है, वास्तव में हमारे घर के बच्चे भी गुमराह होकर इस आग को हवा दे रहे हैं। आतंक के अड्डे अब शहरों, पहाड़ों और घने जंगलों तक ही सीमित नहीं हैं, मैदानी इलाकों में स्थित हमारे गांवों में भी पांव पसार रहे हैं। ऐसे में अब खुफिया एजेंसियों, पुलिस और कानून-व्यवस्था की खामियों को कोसने भर से काम नहीं चलने वाला। जरूरत है गुमराह बच्चों को फिर से सही राह पर लाने की। जरूरत है जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा की बंदिशों से ऊपर उठकर सामाजिक तानाबाना और आपसी भरोसे को इतना मजबूत बनाने की, ताकि हमारे बीच से कोई आतंकी पैदा न हो। साथ में जरूरत है कानून को इतना कठोर बनाने की, ताकि कोई विदेशी ताकत हमारे किसी और बच्चे को गुमराह न कर सके। आशा है हमारे नेता भी मामले की गंभीरता को समझेंगे और दलगत भावना से ऊपर उठकर इस आग को बुझाने के लिए एकजुट प्रयास करेंगे।

सोमवार, सितंबर 22, 2008

बोया बीज बबूल का, आम कहां से पाओगे?

एक सप्ताह के अंदर पहले हिंदुस्तान की राजधानी नई दिल्ली, फिर यमन की राजधानी साना और अब पाकिस्तान की राजधानी इसलामाबाद। आतंक के धमाके जहां कहीं भी हों, पीड़ा एक जैसी होती है और पीड़ित आम निर्दोष लोग ही होते हैं। इनकी जितनी भी निंदा की जाए, कम होगी। इस पीड़ा ने मुझे इतना व्यथित कर दिया, कि पिछले कुछ दिनों से मैं कोई पोस्ट नहीं डाल सका।
मुझे गर्व है कि मैं ऋषि मुनियों की धरती हिंदुस्तान में पैदा हुआ, जहां कबीर, रहीम, तुलसीदास और गुरु नानक जी जैसे महान संतों, कवियों और गुरुआें की वाणी जीने की सच्ची राह दिखाती है। मुझे बचपन से ही सिखाया गया था-
जो तोको कांटा बुबै, ताही बोय तू फूल।
तोको फूल के फूल हैं, वाको हैं त्रिशूल।।
दुर्भाग्य से इसी धरती पर पैदा हुए हमारे भाई, जिन्होंने बंटवारे के बाद न केवल पाकिस्तान नाम से अपनी अलग दुनिया बसा ली, बल्कि इस सीख के विपरीत राह पकड़ ली। 'अहिंसा परमो धर्म:` की सीख के साथ महात्मा गांधी ने भले ही हिंदुस्तान को आजादी दिला दी, लेकिन इसी हिंदुस्तान से अलग हुए हमारे पड़ोसियों ने इसे भी अनसुना कर दिया। यह और बात है कि उनके पैगम्बर भी अहिंसा की ही सीख देते हैं, लेकिन उसी पैगम्बर के नाम पर वे पूरी दुनिया के लिए हिंसा और आतंकवाद रूपी कांटे की फसल को सींचते रहे हैं। आज उनकी कांटे की फसल पक कर तैयार हो चुकी है। ये कांटे पूरी दुनिया को चुभ रहे हैं, तो जिस धरती पर फसल बोई गई है उसे कैसे महफूज रखेंगे। ऐसे में हमारा व्यथित हृदय बस यही कह रहा है- बोया बीज बबूल का, आम कहां से पाओगे? साथ में यह गुहार भी लगा रहा है, बहुत हुआ भाई, कांटों की फसल को और खाद-पानी न दो। आओ, साथ मिलकर अमन के बीज बोते हैं, जिससे उपजे शांति के फूल दुनियाभर में खुशबू बिखेरेंगे।

गुरुवार, सितंबर 18, 2008

मराठियों और उत्तर भारतीयों के रिश्ते अटूट हैं

महाराष्ट्र में राज ठाकरे की गुंडागर्दी, चुपचाप उसका मुंह देखती मुंबई पुलिस और वोट बैंक के दबाव में अगल-बगल देखते राजनीतिक दलों के बीच पिस रहे हैं मेहनत कर मुंबई को आर्थिक राजधानी का खिताब दिलाने वाले उत्तर भारतीय। मराठियों और उत्तर भारतीयों का रिश्ता क्या सिर्फनफरत का है, दुश्मनी का है? इसके जवाब में प्रस्तुत है वरिष्ठ पत्रकार श्री निशीथ जोशी का एक आलेख--
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बुधवार, सितंबर 17, 2008

हैरान करता है मीडिया का बदलता रवैया

राष्ट्रीय आपदा की हकीकत
बिहार में कोसी नदी का जलस्तर घटने के साथ बाढ़ का कहर भले ही कुछ थम गया हो, लेकिन लेकिन करीब एक माह पहले (१८ अगस्त) आई इस राष्ट्रीय आपदा से प्रभावित ४० लाख से अधिक लोगों की जिंदगी अब भी थमी है। लाखों बेघर लोग, जो किसी तरह बच गए, उनके जीने का सारा सामान बाढ़ की भेंट चढ़ गया है। करीब साढ़े तीन सौ राहत शिविरों में तीन लाख से अधिक लोग खाली हाथ जिंदगी की नई शुरुआत के लिए तानाबाना बुन रहे हैं। देशभर से मिल रही सहायता से उन्हें और उनके परिजनों को कुछ दिनों तक भूख से तो बचाया जा सकता है, लेकिन जिंदगी कुछ दिनों की नहीं होती। हजारों लोगों का अता-पता नहीं है। खतरे और भी हैं- यूनीसेफ की टीम ने प्रभावित इलाके में स्वास्थ्य, पोषण, पानी और साफ-सफाई पर विशेष जोर देते हुए संक्रामक बीमारियां फैलने की आशंका जताई है। कोसी का जलस्तर एक बार फिर चढ़ने की आशंका भी जताई जा रही है।
और राष्ट्रीय मीडिया का रवैया
सबसे तेज होने और खबरों से पहले पहुंचने जैसे नारे देने वाले राष्ट्रीय चैनलों और ज्यादातर अखबारों को इस राष्ट्रीय आपदा की भनक कई दिनों बाद लगी। भनक लगने के बाद भी दो-तीन दिनों तक तो एक साधारण सी खबर के रूप में इसे निपटा दिया गया। जब आपदा की गंभीरता का अहसास हुआ तो दो-तीन दिनों के लिए विशेष टीम भेज कर सक्रियता दिखाने की कोशिश की। इसका असर भी हुआ, केंद्र सरकार ने सहायता मंजूर करने में आनाकानी नहीं की। लेकिन चंद दिनों बाद ही राष्ट्रीय मीडिया से बिहार की खबरें ऐसे गायब हो गइंर्, जैसे वहां सबकुछ सामान्य हो गया हो। जबकि आज अकेले बिहार के बाढ़ प्रभावित इलाके से ही रोज दर्जनों 'ह्यूमेन एंगिल स्टोरी` (जीवन के दर्द को यही नाम दिया जाता है मीडिया में) कवर की जा सकती है। दिनभर इस आस में कई बार न्यूज चैनल बदल कर देखता हूं कि शायद किसी को दर्द का अहसास हो रहा होगा, लेकिन वहां तो दिखती है कामेडी और गीतों की महफिल। राष्ट्रीय अखबारों के अंदर के पन्ने पलटता हूं तो वहां गली-मुहल्लों की खबरों और विज्ञापन के बाद इतनी जगह नहीं बचती कि बिहार के दर्द को भी समेटा जा सके। कुल मिलाकर व्यावसायिकता के खेल में मीडिया का बदलता रवैया हैरान करता है।

सोमवार, सितंबर 15, 2008

'बफादारों` की इस बेशर्मी पर क्या कहेंगे आप?

इस पोस्ट में सबसे पहले मैं हृदय से बधाई देना चाहूंगा उन समाचार चैनलों को जिन्होंने दिल्ली में हुए आतंकी धमाकों की दुखद घड़ी में गृहमंत्री की 'गंभीरता` का खुलासा किया। नेताआें को गिरगिट की तरह रंग बदलते सुना था, लेकिन एक ऐसा नेता जिसमें पार्टी आलाकमान के प्रति वफादारी के अलावा और कोई भी रंग न हो, हर तरह के मसलों से बेपरवाह कपड़े बदलने में जुटा हुआ है। ऐसे में यह शक होने लगता है कि कहीं मंत्री के कपड़े भी धमाकों के खून से सने तो नहीं थे। इस पर यकीन करने को जी तो नहीं करता, लेकिन इतना तो तय है कि देश को खून के और धब्बों से बचाने के लिए ऐसे गृहमंत्री को तुरंत बेशर्मी त्याग कर जिम्मेदारी किसी जिम्मेदार व्यिक्त के हवाले कर देनी चाहिए।
बेशर्मी यहीं खत्म नहीं हो जाती। कांग्रेस के एक प्रवक्ता तो इस 'बफादार मंत्री` के साथ बफादारी निभाने में बेशर्मी की सारी हदें पार करते दिख रहे हैं। यकीन नहीं होता है तो सोमवार को टीवी चैनलों पर दिया उनका यह बयान देखिए- 'ऐसे विकट समय में इस तरह की बातें कर देश में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश की जा रही है।` यानी यह देश तभी तक स्थिर है, जब तक मंत्री जी पल-पल कपड़े बदलते रहेंगे। जिन टीवी चैनलों और पत्रकारों को हम बधाई दे रहे हैं, प्रवक्ता महोदय के शब्दों में वे देश में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं।
इन बेशर्मों की जमात के साथ खड़े लालू प्रसाद यादव भी बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने कुछ दो टूक तो कुछ इशारों-इशारों में काफी कुछ कह दिया। मंत्रिमंडल की तुरंत बैठक बुलाने और इस गंभीर मसले का ठोस हल निकालने की लालू की मांग सराहनीय है।
'बफादारों` की इस बेशर्मी पर या कहेंगे आप? सवाल देश को खून के और धब्बों से बचाने का है, इसलिए आपसे एक टिप्पणी की गुजारिश कर रहा हूं।

शनिवार, सितंबर 13, 2008

हिंदी दिवस पर औपचारिकताओं से आगे बढ़ना होगा

ठीक एक दिन बाद फिर निभाई जाएगी औपचारिकताएं हिंदी दिवस मनाने की। एक ऐसी राष्ट्रभाषा की, जिसे जो चाहे प्रतिबंधित कर दे। आजादी के ६१ वर्षों में हिन्दी को इतना सम्मान भी नहीं मिल सका कि इसे कोई भी राज्य या संगठन प्रतिबंधित या अपमानित नहीं कर सके। बापू और लाल बहादुर शास्त्री ने जोर देकर कहा था कि हिंदी ही राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोकर रख सकती है। लेकिन आजादी के बाद सत्ता का सुख भोगने वालों ने राष्ट्रभाषा की चिंता कभी नहीं की। किसी ने यदि की भी, तो प्रयास ठोस साबित नहीं हुए। यह और बात है कि इस दौरान हिंदी का लगातार विस्तार हुआ है, लेकिन इसके लिए सरकारी प्रयास नहीं बाजार की नीतियां बधाई के पात्र हैं। पिछले कुछ वर्षों में हिंदी के चैनल, एफएम रेडियो और हिंदी अखबारों का अत्यंत तेजी से विस्तार हुआ, लेकिन राष्ट्रभाषा आज भी दयनीय स्थिति में नजर आती है।
हालत यह है कि महाराष्ट्र में हिंदी में बोलने पर न केवल अभिनेत्री जया बच्चन, बल्कि उनके पति सदी के महानायक कहलाने वाले अमिताभ बच्चन भी बार-बार माफी मांग रहे हैं। (ऐसा महानायक पहले कभी नहीं सुना था)। मुंबई में व्यापारियों को मराठी में बोर्ड लगाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। दूसरी ओर दो दिन पहले ही पंजाब विधानसभा में पंजाब दफ्तरी भाषा संशोधन ए ट २००८ और पंजाब में पंजाबी भाषा एवं अन्य भाषाओं को पढ़ाने संबंधी बिल-२००८ पारित हुआ है। इस संशोधन के बाद पंजाब सरकार के सभी कार्यालयों, सरकारी क्षेत्र के दायरे में आने वाले बोर्ड, कारपोरेशन और लोकल बाडी सहित स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों में सारा कामकाज पंजाबी में ही होगा। साथ ही स्कूलों में पहली से दसवीं तक पंजाबी पढ़ना अनिवार्य हो गया है। अगर कोई इसका उल्लंघन करता है तो उस पर मोटा जुर्माना किया जाएगा।
इस बात पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती कि महाराष्ट्र में मराठी, पंजाब में पंजाबी को सम्मान मिले। लेकिन भारत में ही किसी प्रदेश में हिंदी बोलने वालों को माफी मांगनी पड़े या किसी प्रदेश में सरकारी कामकाज को सिर्फ प्रदेश की भाषा तक सीमित कर दिया जाए, तो राष्ट्रीय अखंडता खतरे में पड़ सकती है। भाषा के आधार पर क्षेत्रीयता के स्वर मुखर होंगे। राज्य के सरकारी दस्तावेज को दूसरे राज्यों के लोग चाह कर भी नहीं पढ़ पाएंगे। कुल मिलाकर एक वृहत राष्ट्र भारत की अवधारणा पर संकट पैदा हो सकता है।
ऐसे में जरूरत इस बात की है कि हिंदी दिवस पर औपचारिकताएं निभाने से ज्यादा कुछ किया जाए। हिंदी को इतना समृद्ध बनाया जाए, ताकि यह पूरे राष्ट्र में आसानी से स्वीकार्य हो और राष्ट्र को सचमुच एक सूत्र में बांध कर रख सके। साथ ही कानून में ऐसे प्रावधान किए जाएं, ताकि किसी प्रदेश में राष्ट्रभाषा अपमानित या प्रतिबंधित न हो। हिंदी से जुडे साहित्यकारों, कलाकारों, पत्रकारों, नेताओं के साथ-साथ राष्ट्रभाषा के तमाम शुभचिंतकों को इस पर गंभीरता से सोचना होगा।

शुक्रवार, सितंबर 12, 2008

राष्ट्रभाषा के दुश्मनों, गुस्ताखियां जारी रखो

सैकड़ों जातियों और भाषाआें का देश भारत भले ही अनेक क्षेत्रीयमुद्दों पर उलझा है, लेकिन जब भी कोई तानाशाही ताकत इसकी राष्ट्रीयअस्मिता पर हमले करता है, भारतवासी खुद को एक-दूसरे के औरकरीब पाते हैं। इसके अनेक उदाहरण हमारे इतिहास एवं वर्तमान मेंमौजूद हैं। इसीलिए तो कहा गया है- 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहींहमारी`
मुंबई में राष्ट्रभाषा हिंदी और हिंदीभाषियों को गाली देने वाले उपद्रवियोंने एक बार फिर इसे सच साबित किया। आज दुनिया भर में यह सवालपूछा जाने लगा है कि मुंबई किसकी? राष्ट्रभाषा के अपमान पर पूरा राष्ट्रचुप यों? महाराष्ट्र वासी भी राष्ट्रभाषा के अपमान से कम आहत नहीं हैं। तो किसी के हिंदी बोलने से मराठी का अपमान होता है और हीमराठी बोलने से हिंदी का। भाषा का विवाद सीधे-सीधे बोलने कीआजादी पर हमला है। तभी तो कांग्रेस नेता संजय निरूपम एक टीवी चैनल से बातचीत में दोटूक कहते हैं कि 'सदीके महानायक अमिताभ बच्चन और सुपर हीरो शाहरुख खान ने अपने शहर को छोड़ कर मुंबई का मान बढ़ाया है।मुट्ठीभर लोग सिर्फ पब्लिसिटी के लिए गैरकानूनी तरीके से उनका विरोध कर रहे हैं।`
सदी के महानायक आज भले ही अपनी पत्नी के हिंदी बोलने पर माफी मांगने की जल्दीबाजी में दिखे, लेकिन इससेउनका कद छोटा नहीं हुआ। करोड़ों भारतवासियों में उनका सम्मान बढ़ा ही है। साथ में बढ़ रही है राष्ट्रीय सत्ता औरगांधी परिवार से उनकी नजदीकियां। मुंबई में एक सिनेमाहाल के सीसे टूटने के साथ अमिताभ की नई अंग्रेजीफिल्म को व्यापक प्रचार मिला सो अलग। कुल मिलाकर दावे के साथ कहा
जा सकता है कि राष्ट्रभाषा के दुश्मनचाहे जितनी गुस्ताखियां कर लें, राष्ट्रभाषा के प्रति सम्मान बढ़ता ही जाएगा।

बुधवार, सितंबर 10, 2008

चैनलों को दहशत फैलाने की आजादी कबतक?

महाप्रयोग से धरती का कुछ नहीं बिगड़ा। लेकिन दुखद यह है कि करोड़ों लोगों को मौत का खौफ दिखाकर टीआरपी (यह 'टेरर रेस्पांस पारामीटर` बन रहा है) बढ़ाने वाले चैनलों का भी कुछ नहीं बिगड़ा। किसी वैज्ञानिक या विशेषज्ञ की टिप्पणी के बिना ही कुछ समाचार चैनल दुनिया के खत्म होने की उलटी गिनती करते रहे। न कोई रोक, न कोई टोक, जो मर्जी हो दिखाते रहो। इससे कोई खौफजदा होता है तो होता रहे।
ये चैनल कभी शनि महाराज का खौफ दिखाकर बेखौफ अपनी दुकान चमकाते हैं, तो कभी ग्रहण के दुष्प्रभाव या कुछ और। ऐसे चैनलों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके द्वारा दिखाई गई बेतुकी खबरों से करोड़ों लोग तनाव में आ जाते हैं। नतीजा भी सामने है, उत्तर प्रदेश के कायमगंज (फर्रुखाबाद) में मंगलवार को एक बुजुर्ग टीवी पर इस काल्पनिक महाप्रलय की खबर देख रहे थे। उसी दौरान उनके पोतों ने जब उनसे इसकी चर्चा की तो उनकी सांसें ही थम गइंर्। इसी इलाके में एक कालेज छात्रा को अत्यधिक तनाव के कारण गंभीर हालत में अस्पताल में दाखिल कराया गया है। बच्चों पर इसका असर तो और भी घातक है। देश के करोड़ों बच्चे आज अनिष्ट की आशंका और दहशत के साथ स्कूल गए। यह तो बानगी भर है। पिछले कुछ दिनों में बड़ी संख्या में ऐसे मरीज अस्पताल पहुंचे होंगे, जिनकी बीमारी का सही अनुमान ही नहीं लगाया जा सका होगा।
बिना किसी प्रमाणिकता के बेतुकी खबरें दिखाकर आतंक फैलाने की आजादी आखिर कब तक? ऐसे चैनलों पर यों नहीं तत्काल प्रतिबंध लगा देनी चाहिए?

यह आखिरी पोस्ट नहीं है, धरती कल भी रहेगी

पिछले कुछ सप्ताह से कई समाचार चैनल जिस 'महाप्रलय का खौफ दिखाकर अपनी टीआरपी बढ़ा रहे थे, उससे अब हम बस कुछ घंटे की दूरी पर हैं। मैं कोई वैज्ञानिक नहीं हूं, लेकिन दावे के साथ कह सकता हूं कि आज यह आखिरी पोस्ट नहीं है। कल भी यह धरती रहेगी और उसपर रहने वाले लोग। कल जो महाप्रयोग होने जा रहा है, वह महाविनाश के लिए नहीं बल्कि महाकल्याण के लिए होगा।
महाप्रयोग के संबंध में जैसा मैंने जाना-
कब होगा : बुधवार को भारतीय समयानुसार ठीक साढ़े बारह बजे महामशीन (लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर) का बटन दबा दिया जाएगा।
कहां होगा : ए सपेरिमेंट टनल स्विट्जरलैंड और फ्रांस की सीमा पर बनाई गई है। इसके लिए जमीन के १७५ मीटर अंदर २७ किलोमीटर वृत्ताकार लंबे टनल में लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर (एलएचए) बनाया गया है।
कौन करेगा : जिनेवा स्थित यूरोपियन ऑर्गेनाइजेशन फॉर न्यूि लयर रिसर्च के विज्ञानियों के साथ भारतीयों सहित दुनियाभर के करीब ८००० विज्ञानी इसमें सहयोग कर रहे हैं।
कितना खर्च : करीब ५०० बिलियन डॉलर। भारत भी इसमें कई करोड़ डालर का सहयोग कर रहा है।
मशीन के दोनों सिरों से ४५० गीगाबाइट की बीम (किरणें) छाे़डी जाएंगी। ये बीम प्रकाश की गति से आपस में टकराएंगी, जिससे बिग बैंग बनेंगे और एक सेकेंड से कम समय में ही नष्ट हो जाएंगे। इससे निकलने वाली ऊर्जा से कई अवयव निकलेंगे। बाद में कंप्यूटर के जरिए आकलन किया जाएगा कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति के समय बिग बैंग में या हुआ होगा।
क्यों होगा : ब्रह्मांड के अनसुलझे रहस्यों का पता लगाने के लिए। इसके अलावा चिकित्सा विज्ञान से जु़डीं अहम जानकारियां भी मिलेंगी।
नतीजा कब : हजारों विज्ञानी इस महाप्रयोग में पिछले २० वर्षों से जुटे हुए हैं। अब महाप्रयोग के दौरान प्राप्त नतीजों का अध्ययन और विश्लेषण अगले १५-२० साल तक चलता रहेगा।

सोमवार, सितंबर 08, 2008

है कोई हिंदी का लाल, जो मुझे रोक सके

कौन कहता है कि हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्तां हमारा।
ये बच्चों को कौन सिखा रहा है कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है।
पता करो, मैं उसका जीना हराम कर दूंगा।
मैं हूं राज ठाकरे, असली मराठी भ त।
यह महाराष्ट्र मेरा है और जिसे यहां रहना है उसे मेरे इशारे पर नाचना होगा।
आज सोमवार को मैं अमिताभ, अभिषेक और जया बच्चन की फिल्मों और हिंदी में किए गए उसके विज्ञापन वाले तमाम उत्पादों का महाराष्ट्र में बहिष्कार करने का फरमान जारी कर रहा हूं।
यह तो शुरुआत है। धीरे-धीरे मैं महाराष्ट्र में हिंदी में बोलने वाले हरेक मुंह पर ताले लगा दूंगा और हिंदी में लिखे गए हर शब्द को मिटा दूंगा।
...
जब भी मैं जोश में होता हूं तो ऐसा ही सोचता हूं। लेकिन फिर होश में आने पर लगता है कहां-कहां से हिंदी मिटाऊंगा? या- या बंद कराऊंगा- उत्पाद, टीवी, अखबार, पत्रिकाएं, किताबें, महाराष्ट्र में आने से या- या रोक पाऊंगा?
फिर सोचता हूं जबतक हिंदी वाले होश में नहीं आते, मुझे अपना जोश बनाए रखना चाहिए।
है कोई हिंदी का लाल, जो मुझे रोक सके???

अखाड़े में फिर बादल-अमरिंदर, कुश्ती जारी है

लोकसभा चुनाव की आहट सुनाई देते ही पंजाब में मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह फिर अखाड़े में आमने-सामने हैं। इस समय बादल आक्रामक तेवर में दिख रहे हैं, योंकि अमृतसर इंप्रूवमेंट ट्रस्ट की जमीन के तथाकथित घोटाले के मामले मेंबनी विधानसभा कमेटी ने कैप्टन और उनके मंत्रिमंडल केदो मंत्रियों को दोषी ठहरा दिया है। इससे कैप्टन को रक्षात्मक रवैया अपनाने पर मजबूर होना पड़ा है। अब वेयह कह रहे हैं कि बादल राजनीतिक बदले की भावना सेकाम कर रहे हैं। वह कोई भी कदम उठाने से पहले यह तय कर लें कि कांग्रेस की सरकार बनने पर उनके साथ भी ऐसा ही व्यवहार होगा तो या होगा?
जब कैप्टन मुख्यमंत्री थे तो ऐसा लगता था कि बादल को जेल भिजवाना ही सरकार की पहली प्राथमिकता है। इससमय बादल भी कुछ उसी मूड में दिख रहे हैं और कैप्टन उन्हें कांग्रेस की अगली सरकार बनने पर फिर बदला लेनेकी धमकी दे रहे हैं। कुल मिलाकर इस सियासी कुश्ती को मूकदर्शक बन देख रही राज्य की आम जनता यही सोचरही है कि जल्द ही हार-जीत का फैसला हो, ताकि सरकार और विपक्ष के नेता को जनता से किए उनके वादे याद दिलाए जा सकें। लेकिन महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि से परेशान जनता के हाथ में ऐसा कोई मौका नहीं लगने देना चाहते दोनों नेता, तभी तो कुश्ती जारी है और आगे भी जारी रखने की तैयारी चल रही है।

बुधवार, सितंबर 03, 2008

टीवी चैनलों पर ड्रामा ही करते रहेंगे लालू?

'अरे लाउ ने रूपैया... नीतीश फेल कर गया... ये लो पांच सौ रूपैया और बच्चा बोलो लालू जिंदाबाद` एसी कार में बैठकर टीवी चैनलों के कैमरों की रोशनी में किया गया लालू यादव का यह ड्रामा सचमुच हैरान करने वाला था। शुक्र है कि बच्चा भूख से बिलख रहा था, यदि उसका पेट भरा होता तो शायद वही लालू के झकाझक सफेद कुर्त्ते पर 'बदबूदार दाग` लगाकर इस ड्रामे का जवाब दे देता।
कोसी नदी का कहर झेल रहे लाखों लोगों को राहत दिलाने के लिए प्रधानमंत्री से मुलाकात कर पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव ने बिहार वासियों का ध्यान अपनी ओर खींचा। बाद में रेलवे स्टेशनों पर राहत शिविर लगवाकर, ट्रेनों से बाढ़ पीड़ितों को मुफ्त सुरक्षित स्थानों तक भिजवा कर और फिर देशभर के रेलकर्मियों से एक दिन का वेतन देने की अपील कर रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने तो देशभर के लोगों के दिलों में जगह बना ली। लेकिन इसके बाद शुरू हुआ एक हारे हुए राजनेता लालू यादव का ड्रामा, जिसपर सिर्फ अफसोस किया जा सकता है। राहत शिविरों में भोजन-पानी, दवा-दारू का बेहतर इंतजाम करवा कर मानवता की सेवा करने की जगह लालू यादव कैमरों के आगे चुनावी चंदा बांट कर गरीबों को भरमाने की कोशिश कर रहे हैं।
प्रतिक्रिया पूछने पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह कहना सही है कि यह ऐसे ड्रामों और सियासी बयानबाजी का जवाब देने का नहीं है, जमीन पर काम करने का है। लालू जी के दिल में यदि तबाह हुए लाखों गरीब लोगों के लिए सचमुच दर्द है तो पार्टी कार्यकर्ताओँ को उनकी मदद में लगाएं। केंद्र से मिली मदद को नेताओँ के संरक्षण में पलने वाले लुटेरों की फौज से बचाएं। मदद के लिए देश भर से करोड़ों हाथ उठ रहे हैं, उठेंगे, लेकिन सभी के मन में एक ही चिंता है... राहत के असली हकदार कहीं उसका इंतजार ही करते रह जाएं।

मंगलवार, सितंबर 02, 2008

चैनलों की भ्रामक खबर से बंदा खुश हुआ


सितंबर माह की पहली तारीख को ज्यादातर समाचार चैनलोंकीभ्रामक खबर से बंदा खुश रहा। चैनलों पर दिनभर ब्रेकिंगन्यूज दिखाईगई कि १५ सितंबर से सभी मोबाइल कंपनियों केरीचार्ज कूपनों परफुल टॉकटाइम मिलेगा। ऐसा निर्देश भारतीयदूरसंचार नियामकप्राधिकरण (ट्राई) ने दिया है। बंदे को लगा किअब वह दिल खोलकरबातें कर सकेगा। खबर को और विस्तार सेजानने के लिए इंटरनेटखंगाला तो समाचार एजेंसियों की खबरोंसे पता चला कि ट्राई का यहनिर्देश सिर्फ 'टॉप-अप` कार्ड के लिएहै। शायद ही कोई मोबाइलधारकहोगा, जिसे रिचार्ज कूपन औरटॉप-अप` कार्ड का अंतर पता नहींहोगा। ऐसे में यदि एजेंसी कीखबर सही है तो समाचार चैनलों में बैठेलोगों की सक्रियता पर सिर पीटने को जी करता है, जिन्हें राततक भीअपनी गलती का पता नहीं चला।
समाचार एजेंसियों के मुताबिक ट्राई ने टेलीकॉम ऑपरेटरों से कहा है कि वे उपभो ताआें से 'टॉप-अप` कार्ड परप्रोसेसिंग शुल्क के नाम पर मनमानी वसूली बंद करें। ट्राई ने प्रोसेसिंग फीस की अधिकतमसीमा दो रुपये तय करदी है। इसके अतिरि उपभो ताआें को सिर्फ १२.५० फीसदी सेवा कर देनाहोगा। इस निर्देश के बाद ग्राहकों को१५ सितंबर से सिर्फ 'टॉप-अप` कार्ड पर फुल टॉकटाइम मिलेगा।
रिचार्ज कूपन का उपयोग सभी मोबाइल उपभो ताआें को सेवा अवधि (वेलिडिटी) खत्म होने के बादअनिवार्यरूप से करना पड़ता है। जबकि 'टॉप-अप` कार्ड में सिर्फ टॉकटाइम मिलता है, वेलिडिटी नहीं।बड़ी संख्या मेंमोबाइलधारकों को 'टॉप-अप` का उपयोग करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। इसके अलावाकई कंपनियां 'टॉप-अप` कार्ड पर पहले से फुल टॉक टाइम दे रही हैं। कुछ कंपनियां, जो 'टॉप-अप` कार्डपर भी मनमाने ढंग से प्रोसेसिंगशुल्क वसूल रही थीं, उनके उपभो ताआें को जरूर इससे फायदाहोगा।
ट्राई के इस आदेश के बाद भी रिचार्ज कूपनों पर मनमानी वसूली जारी रहेगी। टेलीफोन कंपनियां असलखेल` तोयहीं कर रही हैं। उपभो ताआें को पहले सस्ती काल दरों का प्रलोभन देकर फंसाती हैं फिररिचार्ज कूपन में कमटॉकटाइम देकर उन्हें चूना लगा देती हैं। ऐसे में उपभो ताआें के लिए तय करनामुश्किल हो जाता है कि किसकंपनी की सेवा उसके लिए सस्ती है। ट्राई को चाहिए कि रिचार्ज कूपन परभी फुल टॉकटाइम का आदेश जारी करे, ताकि उपभो ताआें को विभिन्न कंपनियों की कॉल दरों मेंअपने लिए बेहतर टैरिफ का चुनाव करने में आसानी
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