1.
शिवालों मस्जिदों को छोड़ता क्यों नहीं।
खुदा है तो रगों में दौड़ता क्यों नहीं।
लहूलुहान हुए हैं लोग तेरी खातिर,
खामोशी के आलम को तोड़ता क्यों नहीं।
कहदे कि नहीं है तू गहनों से सजा पत्थर,
आदमी की ज़हन को झंझोड़ता क्यों नहीं,
पेटुओं के बीच कोई भूखा क्यों
अन्याय की कलाई मरोड़ता क्यों नहीं।
झुग्गियां ही क्यों महल क्यों नहीं,
बाढ़ के रुख को मोड़ता क्यों नहीं।
2.
जब हों जेबें खाली साहब।
फिर क्या ईद दीवाली साहब।
तिनका - तिनका जिसने जोड़ा,
वो चिडिया डाली-डाली साहब।
सब करतब मजबूरी निकलेँगे,
जो बंदर से आंख मिला ली साहब।
सबकी है कंक्रीटी भाषा,
अपनी तो हरियाली साहब।
मौसम ने सब रंग धो दिये,
सारी भेडें काली साहब।
आधार की बातें, झांसे उसके,
दो बैंगन को थाली साहब।
जब अच्छे से जांचा - परखा,
रिश्ते निकले जाली साहब।
6 टिप्पणियां:
dono gazale aaj ka satya darshati,bahut hi achhi lagi badhai
बढ़िया प्रयास!
लाजवाब...दूसरी वाली ग़ज़ल के ये शेर बिल्कुल नए और बेहतरीन हैं...
सबकी है कंक्रीटी भाषा,
अपनी तो हरियाली साहब
मौसम ने सब रंग धो दिये,
सारी भेडें काली साहब।
नीरज
दोनो गजले एक से बढ कर एक है, लाजवाब,
धन्यवाद
बेहतरीन गजलें। बधाई।
क्या खूब कहा है-
सब करतब मजबूरी निकलेंगे, जो बंदर से आंख मिलाली
bahut sundar ranjan bhai. aapka prayash behtar laga.
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