शुक्रवार, फ़रवरी 19, 2010

इस चुनौती के बाद भी नहीं चेते तो देर हो जाएगी

पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में 24 जवानों की बेरहमी से हत्या के दो दिन बाद ही बिहार के जमुई जिले में एक गांव में तांडव मचाकर नक्सलियों ने हमारी शासन व्यवस्था को खुली चुनौती दी है। एक तरफ हम दुनिया की बड़ी महाशक्ति बनने का दावा करते हैं, दूसरी ओर हमारे घर में ही मौजूद मुट्ठी भर माओवादी हमें बार-बार हमारी ताकत का अहसास करा रहे हैं। सिकंदरा थाना क्षेत्र के कुरासी गांव में बुधवार रात 100 के करीब सशस्त्र नक्सलियों ने जिस तरह आगजनी, विस्फोट और गोलीबारी कर 11 निहत्थे लोगों को मौत के घाट उतार दिया, उसकी जितनी भी निंदा की जाए कम होगी। उधर, झारखंड में भी नक्सलियों ने एक बीडीओ को अगवा कर रखा है, लेकिन सरकार कुछ नहीं कर पा रही है।
विभिन्न राज्यों में नक्सलियों की बढ़ती ताकत और उनके पास आधुनिक हथियारों का होना इस बात की ओर साफ इशारा कर रहे हैं कि उनकी सांठगांठ कुछ ऐसी ताकतों के साथ हो चुकी है, जो भारत को अस्थिर करना चाहती हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत में पिछले तीन वर्षों में आतंकी हमलों में कुल 436 लोग मारे गए हैं, जबकि नक्सली हमलों में मारे गए लोगों की संख्या 1,500 से ज्यादा है।
ऐसी स्थिति में अब भी नक्सलियों के हिंसा छोड़ने और वार्ता के माध्यम से समस्या का समाधान सोचने की बात बेमानी ही होगी। नक्सलियों ने तो माओ से एक ही बात सीखी है कि ताकत बंदूक की नली से आती है। अब समय रहते उन्हें ईंट का जवाब पत्थर से नहीं दिया गया तो देर हो जाएगी।
नक्सली समस्या ने भारत में संसदीय लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा कर दिया है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि निहित स्वार्थ में कुछ बड़े नेता अकसर वामपंथियों के सुर में सुर मिलाते हुए नक्सलियों के लिए ढाल बनकर खड़े हो जा रहे हैं। पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार के साथ-साथ रेल मंत्री ममता बनर्जी तो झारखंड में खुद मुख्यमंत्री शिबू सोरेन नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं चाहते। यह समय की मांग है कि सरकारों के साथ-साथ सभी दलों के नेता, जिनमें थोड़ी भी देशभक्ति बची है, अपने निहित स्वार्थों से ऊपर उठकर इस समस्या का हल तलाशें।

(चित्र हिंदुस्तान से साभार)

मंगलवार, फ़रवरी 16, 2010

कमतर क्यों आंके जाते हैं नक्सली हमले?

पश्चिम बंगाल में अब तक के सबसे बड़े हमले में २४ जवानों की मौत
पुणे की जर्मन बेकरी में शनिवार शाम हुए धमाके ने नौ लोगों को मौत की नींद सुला दिया। यह आतंकी घटना थी, इसलिए न केवल देश के सभी राजनीतिक दलों ने एक स्वर में इसकी निंदा की, बल्कि इसकी गूंज दुनियाभर में सुनाई दी। अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया तक ने इसकी निंदा की। यह शुभ संकेत भी है, भारत में होने वाली बड़ी आतंकी घटना के खिलाफ अब दुनिया भर से एक आवाज सुनाई देने लगी है। वक्त आ गया है कि इस आवाज को अंजाम तक पहुंचाने के लिए कुछ बड़े देश मिलकर एक ठोस पहल करें।
फिलहाल मैं आपका ध्यान पुणे की आतंकी घटना के मात्र २२ घंटे बाद पश्चिम बंगाल में अद्र्धसैनिक बलों पर हुए अब तक के सबसे बड़े नक्सली हमले की ओर दिलाना चाहता हूं। खबरों के मुताबिक नक्सलियों ने सोमवार शाम साढ़े पांच बजे पश्चिमी मिदनापुर जिले के सिल्दा में १४ ईस्टर्न फ्रंटियर रायफल्स (ईएफआर) के कैंप पर हमला कर २४ जवानों को मार डाला। नक्सलियों ने बारूदी सुरंगों के धमाके से कैंप को तहस-नहस कर दिया, वहां आग लगा दी और जवानों के हथियार लूट लिए। कुछ जवानों को गोली मारी गई,, जबकि कुछ को जिंदा जला दिया गया। देर रात जिले के डीएम ने बताया कि अत्याधुनिक हथियारों से लैस सौ से अधिक नक्सली बाइक और कारों से सिल्दा कैंप पहुंचे। हमले के वक्त कैंप में ५१ जवान व अफसर खाना बनाने और अन्य काम में व्यस्त थे। शुरू में जवानों ने जवाबी गोलीबारी की, लेकिन बाद में नक्सली भारी पड़ गए। नक्सली नेता किशनजी ने हमले की जिम्मेदारी लेते हुए कहा है कि यह केंद्र सरकार के ऑपरेशन ग्रीन हंट का जवाब है। किशनजी ने दावा किया हमले में कम से कम ३५ जवान मारे गए और एके-४७, एसएलआर जैसे अत्याधुनिक हथियार लूटे गए।
ऐसे हमलों को हम कब तक यह कहते हुए नजरअंदाज करते रहेंगे कि नक्सली हमारे अपने हैं इसलिए उनके साथ नरमी से पेश आने की जरूरत है? क्या हम अपने देश के अंदर तालिबान का दूसरा रूप नहीं पाल रहे? अभी गिने चुने इलाकों में फैले नक्सली प्रशासन पर भारी पड़ रहे हैं, जब उनके पांव दूर-दूर तक जम जाएंगे तो उन्हें उखाड़ पाना और भी मुश्किल हो जाएगा। गांवों में यह कहावत आम है कि जब अपने पैर में मवाद आ जाए तो उसे काट देते हैं। नक्सलियों की ताजा हरकत देखने-सुनने के बाद मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि हमारे कुछ अपने अब हमारे नहीं रह गए हैं। समय रहते उन्हें उनके अंजाम तक पहुंचा देना चाहिए, वरना देर हो जाएगी।

बुधवार, जून 10, 2009

कलावती का दर्द

सालभर पहले यूपीए सरकार के विश्वास मत पर भाषण के दौरान कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने संसद में महाराष्ट्र के एक गरीब किसान की विधवा कलावती की दुर्दशा का जिक्र क्या किया, वह देशभर के अखबारों में छा गई थीं। दरअसल कांग्रेस के युवराज ने कलावती की झोपड़ी में जाकर खुद को गरीबों का हमदर्द साबित करने की कोशिश की थी। राहुल की इस यात्रा से वास्तव में कलावती का तो कोई भला नहीं हुआ, राहुल ने विगत लोकसभा चुनाव में कुछ राज्यों के गरीबों की हमदर्दी जरूर बटोरी। झोपड़ी में रहने वाली कलावती को राहुल ने मकान के सपने दिखाए थे। एक साल अफसरों के चक्कर काटने के बाद भी उसकी मकान की बुनियाद नहीं पड़ी, हां अफसरशाही से टकराकर उसके सपने जरूर चूर-चूर हो गए। निराश कलावती राहुल से एक और मुलाकात की आस लेकर मंगलवार को दिल्ली पहुंची है। उम्मीद की जानी चाहिए कि राहुल से एक-दो दिन में उसकी दूसरी मुलाकात हो जाएगी और दोबारा सत्ता में लौटी कांग्रेस के युवराज इस बार उससे खोखले वादे नहीं करेंगे। कलावती ने पत्रकारों को अपना दुखड़ा सुनाते हुए कहा कि राहुल ने उसे घर दिलाने का भी वादा किया था। इस संबंध में वह अधिकारियों के दफ्तरों के चक्कर काट कर थक चुकी है, लेकिन कहीं से कोई ठोस जवाब नहीं मिल रहा। जब वह पंचायत अधिकारियों के पास जाती है तो वे कहते हैं कि बीडीओ से मिलो और जब बीडीओ से मिलती है तो जवाब होता है कि यह उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है। इसलिए वह राहुल से फिर मिलकर एक प्रमाणपत्र लेना चाहती है, जिसे वह अफसरों को दिखा सके। इसके साथ ही वह चाहती है कि उसके गांव में कंप्यूटर की सुविधा वाला एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल खोला जाए और चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई जाए।

रविवार, दिसंबर 07, 2008

प्रकाश बादल की दो ग़ज़लें

शिमला में युवा पत्रकार एवं चर्चित गजलकार श्री प्रकाश बादल की चंद गजलों से रू-ब-रू होने का सुअवसर मिला। ब्लाग की दुनिया में इनकी सक्रियता प्रेरित करती हैं। पेश है श्री बादल की दो गजलें-


1.
शिवालों मस्जिदों को छोड़ता क्यों नहीं।

खुदा है तो रगों में दौड़ता क्यों नहीं।

लहूलुहान हुए हैं लोग तेरी खातिर,

खामोशी के आलम को तोड़ता क्यों नहीं।

कहदे कि नहीं है तू गहनों से सजा पत्थर,

आदमी की ज़हन को झंझोड़ता क्यों नहीं,

पेटुओं के बीच कोई भूखा क्यों

अन्याय की कलाई मरोड़ता क्यों नहीं।

झुग्गियां ही क्यों महल क्यों नहीं,

बाढ़ के रुख को मोड़ता क्यों नहीं।

2.

जब हों जेबें खाली साहब।

फिर क्या ईद दीवाली साहब।

तिनका - तिनका जिसने जोड़ा,

वो चिडिया डाली-डाली साहब।

सब करतब मजबूरी निकलेँगे,

जो बंदर से आंख मिला ली साहब।

सबकी है कंक्रीटी भाषा,

अपनी तो हरियाली साहब।

मौसम ने सब रंग धो दिये,

सारी भेडें काली साहब।

आधार की बातें, झांसे उसके,

दो बैंगन को थाली साहब।

जब अच्छे से जांचा - परखा,

रिश्ते निकले जाली साहब।

मंगलवार, अक्तूबर 14, 2008

अमर सिंह! अभी और कितने टर्न लेंगे?

खबर : दिल्ली के बटला हाउस में हुए एनकाउन्टर की न्यायिक जांच कराने की मांग कर विवादों में घिरे समाजवादी पार्टी महासचिव अमर सिंह ने सोमवार को यू टर्न लेते हुए कहा कि उन्होंने बटला हाउस मुठभे़ड को कभी फर्जी नहीं कहा। उन्होंने कहा, 'मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बटला हाउस में हुई मुठभे़ड और पुलिस अधिकारी की शहादत फर्जी थी।`
गुस्ताखी माफ : तो फिर इतने दिनों से मुठभे़ड की न्यायिक जांच की मांग केवल मुसलिम वोट बैंक को भरमाने के लिए कर रहे थे? अल्पसंख्यक वोट बैंक के लिए यूं कब तक घड़ियाली आंसू बहाते रहेंगे? बटला हाउस में एनकाउन्टर में अभी कितने और टर्न लेंगे?

खबर : राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक के एजेंडे में आतंकवाद को शामिल नहीं किए जाने को लेकर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना के बारे में पूछे जाने पर अमर सिंह ने कहा कि उग्रवाद का मुद्दा एजेंडे में शामिल था। मैं इस प्रकार की बातों से परेशान नहीं होता। मैं तथ्यों और अल्पसंख्यकों के मन में जो आशंकाएं हैं, उससे परेशान हूं उनकी आशंकाआें को दूर किए जाने की जरूरत है।
गुस्ताखी माफ : आशंकाएं तो बहुसंख्यकों के मन में भी हैं। फिर एकपक्षीय राजनीति क्यों? नरेंद्र मोदी आतंकवाद के मुद्दे पर राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में बहस की मांग कर क्या गलती कर रहे हैं। क्या राष्ट्रीय एकता को आतंकवाद से खतरा नहीं है? या फिर आतंकवाद पर चर्चा होने से आपका मुसलिम वोट बैंक नाराज हो सकता है?

खबर : कुछ दिन पहले अमर सिंह ने प्रधानमंत्री से मुलाकात कर जामिया नगर के बटला हाउस में हुई मुठभे़ड की न्यायिक जांच कराने की मांग की। हालांकि, प्रधानमंत्री की ओर से उन्हें किसी तरह का आश्वासन नहीं मिला। ... अमर सिंह ने यह भी स्पष्ट किया कि उन्होंने प्रधानमंत्री के साथ बैठक के दौरान गृहमंत्री शिवराज पाटिल के इस्तीफे की मांग नहीं उठाई है।
गुस्ताखी माफ : एनकाउंटर के बाद गिरफ्तार छात्रों को कानूनी मदद देने का ऐलान करते समय तो आपने कहा था कि बटला हाउस एनकाउंटर के लिए गृह मंत्री शिवराज पाटिल को नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे देना चाहिए फिर प्रधानमंत्री से मुलाकात में यह मुद्दा यों नहीं उठाया? क्या आपके खाने के दांत और दिखाने के दांत अलग-अलग हैं?

रविवार, अक्तूबर 12, 2008

क्या ऐसे अधिकारी को पद पर बने रहना चाहिए?

इस देश में जब भी अपराध की कोई बड़ी घटना होती है तो हम तुरंत गृहमंत्री से नैतिक आधार पर इस्तीफे की मांगकर बैठते हैं। ऐसे में जब किसी जिम्मेदार पद पर बैठे बड़े अधिकारी का बेटा ही क्राइम का मास्टरमाइंड निकले तो क्या उससे नैतिक आधार पर इस्तीफा नहीं मांगा जाना चाहिए?
पंजाब के फिल्लौर में पिछले गुरुवार की रात मुंबई के एक व्यापारी से पौने दो करोड़ के हीरे लूट लिए गए थे। लूटकी इतनी बड़ी घटना के बाद पंजाब के पुलिस अधिकारियों में खलबली मच गई थी। पुलिस ने आरोपियों का पता लगाने के लिए कई टीमें बनाई और दो दिनों में ही पूरे मामले का खुलासा कर लूटे गए हीरे बरामद कर लिए। खबरों के मुताबिक लुटेरा निकला विजिलेंस ब्यूरो पटियाला के एसएसपी शिवकुमार का बेटा मोहित शर्मा, जो लुधियाना में हीरों का व्यापारी है। साजिश रचने में उसका सहयोगी निकला खुद एसएसपी का सरकारी गनमैन हरबंस। शक की सूई एसएसपी के एक और गनमैन की ओर इशारा कर रही है, जो अभी पुलिस पकड़ से दूर है। मुंबई के व्यापारी ने गुरुवार दिन में मोहित को हीरे दिखाए थे और रात में लूट की यह वारदात हुई। पुलिस ने मोहित और हरबंस को गिरफ्तार कर लिया है। पुलिस की कामयाबी में मोबाइल काल डिटेल्स की अहम भूमिका रही।
मैं इस राय के बिल्कुल खिलाफ हूं कि बेटे की करतूतों की सजा बाप को दी जाए। लेकिन नैतिक जिम्मेदारी भी कुछ चीज होती है भाई।
विजिलेंस के एसएसपी पर आंतरिक सुरक्षा की बड़ी जिम्मेदारी होती है। उसके पास ऐसी महत्वपूर्ण जानकारियां भी होती हैं, जिसके गलत हाथों में पड़ जाने से देश की आंतरिक सुरक्षा को बड़ा खतरा हो सकता है। ऐसे में जब एसएसपी का बेटा क्राइम का मास्टरमाइंड निकले, तो बड़े साहब जिम्मेदारी से कैसे मुक् हो सकते हैं? सवाल यह हैकि यदि एसएसपी साहब को पता था कि उसका बेटा कानून को ठेंगा दिखा रहा है तो बाप की चुप्पी या अपराध नहीं है? और यदि उसे अपने बेटे के बारे में ही पता नहीं था कि उसका बेटा गलत रास्ते पर चल रहा है, तो फिर या उसे विजिलेंस के एसएसपी जैसे अहम पद रहने दिया जाना चाहिए? देश के नीति निर्धारकों को इस सवाल पर सोचना होगा। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि एसएसपी शिवकुमार पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ चल रही विजिलेंस जांच और पंजाब के पूर्व डीजीपी एसएस विर्क के खिलाफ हो रही जांच में भी शामिल हैं।

शनिवार, अक्तूबर 04, 2008

आरक्षण के असली हकदारों से हक छीना

चुनावी तैयारी में जुटी मनमोहन सरकार हताशा में कुछ ऐसे उलटे-सीधे फैसले कर रही है जिसके लिए आने वाली पीढ़ियां उन्हें शायद ही माफ करे। केंद्रीय कैबिनेट ने शुक्रवार को 'अन्य पिछड़ा वर्ग` (ओबीसी) के ज्यादा से ज्यादा लोगों को सरकारी नौकरियों और शैक्षिणिक संस्थाओं में आरक्षण का लाभ देने के नाम पर क्रीमी लेयर की आय सीमा को सालाना 2.5 लाख रुपये से बढ़ाकर 4.5 लाख रुपये कर दिया है। ऐसा कर न केवल क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभ से बाहर रखने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की काट निकाली गई है, बल्कि आरक्षण के असली हकदार पिछड़ों को इससे दूर करने की साजिश भी रची गई है।
ओबीसी क्रीमी लेयर के लिए सबसे पहले 1991 में एक लाख रुपये सालाना आय की सीमा तय की गई थी, जिसे 2004 में बढाकर
2.5 लाख रुपये किया गया था। अब इसे 4.5 लाख रुपये सालाना करने का मतलब यह है कि 37 हजार 5 सौ रुपये तक मासिक वेतन पाने वाले हाई प्रोफाइल बाप के कान्वेंट एजूकेटेड शहजादे भी आरक्षण के हकदार होंगे। फिर मजदूरी करने वाली मां के बेटों और झोपड़ियों में सपने बुनने वाले होनहारों के लिए तर की की राह पर दो कदम चलना भी मुश्किल हो जाएगा।
उच्च शिक्षण संस्थानों में खाली रह गई ओबीसी सीटों को अनारक्षित कोटे से भरने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद हड़बड़ी में लिया गया सरकार का यह फैसला खेदजनक है। सही रास्ता तो यह था कि समाज के पिछड़े लोगों को इस काबिल बनाया जाता कि ये सीटें खाली ही न रहतीं। लेकिन मनमोहन सिंह जैसे ग्लोबल अर्थशास्त्री से असली पिछड़ों के कल्याण की उम्मीद करना बेमानी ही लगती है। अब ज्यादातर बड़े अधिकारी और नेताओं के सौभाग्यशाली लाडले आरक्षण के मजे ले सकेंगे। आखिर पिछड़ा वर्ग के वोट बैंक पर दबदबा भी तो
2.5 लाख से ज्यादा आमदनी वाले 'पिछड़ों` का ही है।
गणित का सीधा सा सिद्धांत है, बड़ा तभी तक बड़ा है जबतक छोटा उससे छोटा बना रहे। यदि पिछड़े ही नहीं रहेंगे, तो पिछड़ों के नाम पर राजनीति की दुकान कैसे चलेगी। वोट बैंक का इतना बड़ा खजाना ऐसे थोड़े ही मिटने दिया जाएगा? और फिर असली पिछड़ों को छलने के लिए कांग्रेस के युवराज तो खेतों में मिट्टी ढो ही रहे हैं। युवराज की कलाबती की झोपड़ी में टूटी चारपाई की जगह यदि पलंग आ जाए तो वह फोटो कहां जाकर खिंचवाएंगे? उम्मीद की जानी चाहिए कि एक दिन आरक्षण के असली हकदार भी जागेंगे और तब न तो ये आरक्षण के ठेकेदार बचेंगे और न ही उनकी दुकानें।